सृष्टि में जो कुछ भी है उन सबका मूल स्थान 'श्रीयंत्र' ही है। शास्त्र कहते हैं कि ‘श्रयते या सा श्री:, अर्थात जो परब्रह्म का आश्रयण करती है वही श्री है। यंत्रम का अर्थ है, गृह, वास अथवा निवास। अतः जहा परब्रह्म परमेश्वरी 'श्री' का वास है वही गृह है, इससे सिद्ध होता है कि परब्रह्म एवं उनकी शक्ति का सम्यक रूप ही 'श्रीयंत्र' है। पौराणिक मान्यताओं में भी 'यंत्र' शब्द गृह के लिए प्रयोग होता है अतः यह विश्व ही श्री विद्या का गृह है जिसमे ब्रह्म एवं उनकी शक्ति परमेश्वरी एकाकार रूप में विद्यामान रहते हैं। न शिवेन बिना देवी न देव्या च बिना शिवः। अर्थात- परब्रह्म शिव से उनकी शक्ति अभिन्न है न शिव के बिना शक्ति हैं और न ही शक्ति के बिना शिव। दोनों प्रकृति एवं पुरुष ॐकार हैं इसीलिए श्रीयंत्र रूप त्रिपुरसुंदरी का गृह, जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति तथा प्रमाता, प्रमेय, प्राणरूप से त्रिपुरात्मक एवं सूर्य-चन्द्र-अग्नि भेद से त्रिखंडात्मक कहलाता है। शास्त्रों के अनुसार जितने भी यंत्र हैं उन सभी का प्रादुर्भाव श्रीयंत्र से ही हुआ है अतः श्रीयंत्र की पूजा-आराधना करने से सभी यंत्रों का फल एकसाथ मिल जाता है इनकी पूजा के पश्च्यात फिर किसी यंत्र की साधना शेष नही रहती। उससे भी बड़ी बात यह है कि इस यंत्र की आराधना निष्फल नहीं रहती। यंत्र के इसी प्रभावको ध्यान में रखकर स्वयं ब्रह्म ज्ञानियों ने इन्हें 'यंत्रराज' कहा है। शारदीय नवरात्र पर श्रीयंत्र की विधि प्रकार पूजा-आराधना करके स्फटिक अथवा कमलगट्टे की माला से ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नमः मंत्र का जप प्रतिदिन 11 माला जपने से माँ श्रीशक्ति की असीम कृपा प्राप्त होती है जिससे प्राणी अपने सभी मनोरथ पूर्ण करा सकता है।
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